Saturday 10 January 2015

विश्वाश

विनय आज 46 साल की उम्र पार कर चुका था स्कूल की अर्धवार्षिक परीक्षा की हिंदी की कॉपियों का मूल्यांकन कर रहा था अचानक उसे एक मुक्ता नाम की लड़की की कॉपी हाथ लगी ,अचानक उसका शरीर रोमांचित हो गया ,बाहों के रोएँ सारे खड़े हो गए , और वह अपने अतीत मे चला गया और बीते सालों को याद करने लगा । मुक्ता सरल हृदय और सबकी बातों पर आसानी से आ जाने वाली , विश्वाश करने वाली एक भोली लड़की थी । भरे पूरे घर की लड़की होने के बावजूद वह अपने ही घर मे तिरस्कृत थी क्योंकि उसके जीवन से माँ-बाप का साया बचपन मे ही उठ गया था । जब तक दादा-दादी ज़िंदा थे तब तक तो सब कुछ ठीक ही था परंतु अब उनके ना रहने पर चाचा-चाची और उसके चचेरे भाई बहन, पूरे घर का माहौल ,सब कुछ बदल चुका था । उसका कसूर क्या था यह तो उसके भी समझ के परे की बात थी । उसके माता -पिता ने प्रेम विवाह किया था । पहले माँ को कैंसर ने निगला बाद मे पिता को काल ने एक दुर्घटना मे उनको अपना ग्रास बनाया। घर मे सब उसको मनहूस समझते थे ।परिवार के किसी बड़े पर्व या उत्सव मे उसको भाग नही लेने दिया जाता था , उसकी स्थिति घर के बाकी नौकरों से भी गयी गुज़री थी जिनको कम से कम बख्शीश व नये कपडे तो साल मे पहनने को दिए जाते थे और मुक्ता वही दो जोड़े जो चार साल पहले बने थे ।फटे कपड़ो मे उसकी गोरी खाल साफ़ देखी जा सकती थी । सभी उसको दिन भर झिड़कते और ताने मारा करते थे उसको पर वह इन सब बातों को नज़र अंदाज़ कर देने की अदा का वह कायल हो चुका था उसकी उन्मुक्त हँसी ,खिलखिलाता चेहरा पूरे घर को एक सकारात्मक ऊर्जा से जगमगा देता था । उसके इंटर पास होने के बाद उसकी पढाई बंद करा दी गयी थी । पर उसका पढाई के प्रति लगाव इस कदर था कि जब घर के बाकी लोग दिन मे जब अपने अपने कामो पर घर से बाहर चले जाते थे तो वह अपने भाई बहनो की किताबों को बड़े चाव से पढ़ती और उनके आने के पहले बड़े करीने से वापस उसी जगह रख देती । दिन भर की कमर तोड़ मेहनत और रात को रूखी रोटी और गिलास पानी कैसे वह यह सब सह लेती थी आखिर किस विश्वाश के भरोसे वह यह सब सह रही है और क्यों ? विनय को यह बात समझ मे नहीं आती थी ।इसलिये उसने एक दिन हिम्मत कर उसने मुक्ता से पूछ ही लिया । मुक्ता ने हँसते हुए उसे मंदिर मे रखे गिरधर गोपाल की ओर इशारा करते हुए कहा की जीवन देने वाले भी वही और नैय्या पार लगाने भी वही । दरअसल विनय और मुक्ता बचपन से ही साथ खेलते हुए बड़े हुए थे साथ साथ स्कूल जाते थे। मुक्ता,विनय को अपने मन की सारी बात दिल खोल के बताया करती , दोनों के मन मे एक दूसरे के प्रति प्रेम व सम्मान धीरे-धीरे परवान चढ़ रहा था। पर दोनों यह बात एक दूसरे से कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। उधर विनय का बी०एड ० भी पूरा हो चुका था और उसने सरकारी स्कूल मे नौकरी के लिए आवेदन करा था। आज वह ख़ुशी से फूला नहीं समा रहा था उसकी नौकरी जो लग गई थी और वह यह बात सबसे पहले मुक्ता को बताना चाहता था। उत्साह से दौड़ते हुए वह उसके पास पहुंचा एक हाथ मे मिठाई का डिब्बा और दूसरे हाथ मे नियुक्ति पत्र। मुक्ता को उसकी इस कामयाबी से सबसे ज्यादा ख़ुशी हुई तो पर थोड़े ही पल मे उसकी ख़ुशी काफूर हो गयी जब उसे इस बात का पता चला कि विनय को नौकरी करने प्रदेश के बाहर जाना पडेगा तो वह उदास हो गयी कि अब वह किसके साथ अपने दुःख दर्द बाँटा करेगी ।आज उन दोनों ने अपने अपने दिलों के राज जो एक प्रेम का स्वरुप ले चुके थे इकरार मे बदल दिये । विनय ने जल्द ही उसका हाथ मांगने के लिए उसके घर वालों से मिलने की की बात कही। अब मुक्ता बहुत ख़ुश थी कि उसके गिरधर गोपाल ने उसके विश्वाश की लाज रख ली। कुछ दिनों बाद परिवार की आपसी सहमति से दोनों की शादी भी हो गयी - मुक्ता के चाचा-चाची तो उसे अपने सिर का बोझ तो ना जाने कब से समझते थे और जैसे तैसे उसे उतारना चाहते थे ,मानो किसी ने उनके सर पर जूँ रख रखी हो। मुक्ता के भाग्य को कुछ और ही मंजूर था और शादी के कुछ ही दिनों के बाद विनय को मुक्ता के ब्रेन कैंसर का पता चला ,वह तो टूट ही चुका था पर मुक्ता यही रट लगाती कि उसके गिरधारी उसे कुछ नहीं होने देंगें और वह इस विश्वाश के साथ कि उसके गिरधारी उसको कुछ नहीं होने देंगे एक रात वह विनय की बाहों मे आखरी साँस लेती है और इस कठोर दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह देती है ।आज इतने सालों बाद विनय की आँखों के कोरों से गिरते आँसूओं ने कॉपी पर लिखे वाक्यों को , स्याही को ,मिटा डाला था। सामने दीवार पर टंगी उसकी फ़ोटो को एक नजर ऊपर उठा के देखा और फिर उसके गिरधारी को फिर कॉपी को बिना जाँचे नंबर दे दिए मुक्ता की याद मे ।

(पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ। उ०प्र०
०८/०१/२०१५


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