Thursday 12 February 2015

लघुकथा :- बाँझ पन
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एक-एक पल, तिल-तिल कर जीवन जीना उसका दूभर हो गया था। शादी के इतने साल बीतने के बाद भी उसकी कोख सूनी व उजाड़ थी । बिना बच्चों की किलकारी के पूरा घर उसे काटने को आता था ।

ऊपर से सास ननद के तानें व मोहल्ले की स्त्रियों का उसे शक की नज़रों से देखना -कि वह एक बाँझ है ।

अच्छी भली लड़की को उसके ससुराल वालों ने पागल घोषित कर उसे पागलखाने में डाल दिया ।
क्या कभी किसी ने उसके दर्द पर मरहम लगाने की कोशिश की ? क्या कभी किसी ने उसके दर्द को जानना चाहा कि एक मर्द के रहते हुये वह क्यों बाँझ है ?
समाज के सामने तो वह दोनो एक पति पत्नी रहे ।

पर क्या भगवान के सामने भी वे पति पत्नी थे। अगर भगवान के सामने दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम व आस्था रखते तो आज उसकी गोद यूँ सूनी नहीं होती ।
आज पागल खाने के कमरे के कोने में पड़ी एक जिन्दा लाश जो कभी पूर्णतः स्वस्थ थी आँखों के कोरों से झरते उसके आंसुओं की अविरल धारा बेदर्द बेशर्म समाज से मानो पूछना चाह रही हो क्या उसका कुरूप होना एक अभिशाप है ।
(पंकज जोशी)
लखनऊ । उ०प्र०
12/02/2015


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