लघुकथा :- मेरा वतन
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रेडियो पर फ़िल्म काबुली वाला का
गाना बज रहा था ' ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछुड़े चमन तुझ पे दिल
कुर्बान ' ठा० गजेन्द्र सिंह का चेहरा गुस्से से लाल और
आँखें आँसूओं से डब डबा गईं थी । तेजी से उठे और रेडियो बंद कर दिया ।
देशभक्ति
से जुड़ा कोई भी प्रसंग उनके जख्म को कुरेद देता हैं हरा कर देता हैं ।
एक जमींदार का बेटा
देश की आजादी के लिये कैसे अपना सर्वस्व देश के लिये न्योछावर कर देता है ।
आज
भी वह गुजरे ज़माने को याद कर अपने को कोसतें हैं काश घरवालों की बात मान ली होती
पर गर्म खून के लिए उस वक्त यह सारी बातें बेमानी थी । वे तो देश की आजादी के
जुनून में डूबे हुए थे ।
आज
अस्सी बरस की आयु होने को आई है आजादी का यह दीवाना दो वक्त की रोटी के
लिये तरस रहा है , आजादी का यह दीवाना
बदहाली और कंगाली का जीवन बसर करने पर मजबूर है ।
अब उनके
कानों को ना तो वंदे मातरम् की गूंज अच्छी लगती है और ना ही " मेरा वतन
" जैसे कोई देशभक्ति के गाने सुनने मे उसको कोई रस आता है ।
उम्र
के आखिरी पड़ाव में उनको इतना जरूर समझ मे आ गया था कि इन काले अंग्रेजो
से गोरों का शासन बेहतर था ।
(पंकज
जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
07/02/2015
लखनऊ । उ०प्र०
07/02/2015
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