Saturday 7 February 2015

लघुकथा :- मेरा वतन 
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रेडियो पर फ़िल्म काबुली वाला का गाना बज रहा था ' ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछुड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान ' ठा० गजेन्द्र सिंह का चेहरा गुस्से से लाल और आँखें आँसूओं से डब डबा गईं थी । तेजी से उठे और रेडियो बंद कर दिया ।

देशभक्ति से जुड़ा कोई भी प्रसंग उनके जख्म को कुरेद देता हैं हरा कर देता हैं ।
एक जमींदार का बेटा देश की आजादी के लिये कैसे अपना सर्वस्व देश के लिये न्योछावर कर देता है ।
आज भी वह गुजरे ज़माने को याद कर अपने को कोसतें हैं काश घरवालों की बात मान ली होती पर गर्म खून के लिए उस वक्त यह सारी बातें बेमानी थी । वे तो देश की आजादी के जुनून में डूबे हुए थे ।
आज अस्सी बरस की आयु होने को आई है आजादी का यह दीवाना दो वक्त की रोटी के लिये तरस रहा है , आजादी का यह दीवाना बदहाली और कंगाली का जीवन बसर करने पर मजबूर है ।
अब उनके कानों को ना तो वंदे मातरम् की गूंज अच्छी लगती है और ना ही " मेरा वतन " जैसे कोई देशभक्ति के गाने सुनने मे उसको कोई रस आता है
उम्र के आखिरी पड़ाव में उनको इतना जरूर समझ मे आ गया था कि इन काले अंग्रेजो से गोरों का शासन बेहतर था
(पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
07/02/2015


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