Saturday 20 June 2015

पांचाली (अंतर्द्वंद)
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आज कुरु निवास इस्टेट में ख़ुशी का दिन है। धृतराष्ट्र को अपनी नई आँखे दान में जो मिल गई थी। बाहरी रंगीन चकाचौंध से भरी दुनिया उसको भाने लगी थी ।

गांधारी भी पतिवृता के दंश से आज उन्मुक्त हो नई ऊंचाइयों को छूना चाह रही थी ।

लाक्षागृह से पाण्डु पुत्रों का बच निकलना डी कम्पनी को पचा नहीं पा रहे थे।

अपने बहनोई जी से भी आज मामा शकुनि को द्यूत क्रीड़ा खेलने की इजाजत मिल चुकी थी ।

सभा खचाखच हुई भरी थी । भीष्म पितामह भी बड़ी मुश्किल से पास का जुगाड़ कर पाये थे।

अर्जुन अपनी .32 कैलिबर की रायफल हार कर बाकि पाण्डव के साथ मुँह लटकाये बैठा था ।

पांडव अभी भी बस एक जीत को लालायित थे।

अरे यह क्या ! " द्रौपदी अब हमारी हुई " दुर्योधन चिल्लाया

"अरे कोई जाओ और दासी को मेरे समक्ष प्रस्तुत करो " उसने आदेशात्मक स्वरुप आदेश अपने अनुज दुशाशन को देने ही वाला था कि द्रौपदी स्वयं द्यूत सभा में उपस्थित हो गई।

" तुम क्या चाहते हो मुझसे ! कुरु कुल दीपक , इन नपुन्सको से तुम्ही भले ! "

( पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ.प्र
16/06/2015

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