राख
------------
उसकी महत्वाकांक्षा ने उसे उसकी और दिव्या की नजरों में मुजरिम बना दिया था ।
कम्पनी में गबन के आरोप में आज पांच साल की कैद काट कर वह जेल से छूटा तो सीधे दिव्या के घर पहुँचा । दिव्या काम पर गई थी तो उसने उसके मोबाइल पर उसी जगह मिलने का समय दिया जहाँ वह अक्सर मिला करते थे ।
ऊपर से सफ़ेद चमकीली पन्नी और डिब्बी के अंदर कैद बीस किंग साइज फिल्टर वाली सिग्रेट्स के पीछे के का पीला लम्बा सा स्पंजी फिल्टर जेब से निकाल कर जैसे उसने उसमे से एक जलाई ही थी कि उसे एक आवाज सुनाई पड़ी ।
' मुझे भूल जाओ तुम अब मेरी जिंदगी में तुम्हारे लिये कोई जगह नहीं है अब ' पर यह सब तो मैंने तुम्हारी ख़ुशी के लिये किया था ?
मेरी ख़ुशी या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये , मेरी ख़ुशी तो तुम्हारी बाहों में थी ना कि तुम्हारी कैदखाने की ज़िन्दगी में , कितना कुछ नहीं सुना तुम्हारे लिए मैंने विनय !! घर वालों से लेकर मोहल्ले वालो तक ।
मेरी अब शादी हो गई है और बीतीं बातों को यही दफन करो आज के बाद मुझसे मिलने की कोशिश भी ना करना।
" उसके कानों पर पड़े दिव्या के हर शब्द उसके सीने को बींध रहे थे ।"
सिगरेट अपनी पहली व दूसरी उँगलियों के मध्य दबी तेज रफ़्तार से जली जा रही थी । राख अभी भी सिगरेट के साथ चिपकी हुई थी ।
अचानक उसकी ऊँगली जली और उसने हाथ को झटका सिगरेट से बची राख भी उसकी ज़िन्दगी की तरह जमीन पर बिखर हुई थी ।
" दिव्या वहां से कब गई उसे पता ही नहीं चला ।"
फिल्टर का आखरी कश उसने जोर से खींचा , जमीन पर बट फेंका और जूतों तलें रौंद कर चल दिया अपनी पुरानी दुनिया में जो उसे अपनाने को तैय्यार खड़ी उसका हाथ बाये इन्तेजार कर रही थी ।
( पंकज जोशी ) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ.प्र
05/07/2015
No comments:
Post a Comment