"भाईसाहब, आपको तो खबर मिल ही गई होगी? विवेक ने कुर्सी पर बैठे-बैठे ही संजीव से पूछा।
"कैसी खबर भाई?"
"लो, इसका मतलब आप आस्था गए ही नहीं अभी तक?"
"यह आस्था क्या है?" मन ही मन मैं बुदबुदाया, अगर पूछुँगा तो यह सब कमीने मेरी खिल्ली उड़ाएँगे। अपनी भद पिटवाने से अच्छा है चुप बैठूँ!
"अच्छा वहाँ, हाँ भई, अभी नहीं गया, जाना है,साथ चलेंगें.... क्या कहते हो?" उसने प्रत्युत्तर दिया।
मैं सोच में पड़ गया कि थियेटर में कोई नयी पिक्चर आई है या कहीं कोई सेल लगी है?
तभी बगल में बैठी रीना जी मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोली "वहाँ जाकर भी कोई वापस आया है भला कभी?"
मतलब, यह लोग किसी हस्पताल की बात कर रहे हैं! मैं निरामूर्ख शहर में रहते हुए ठीक तरह से हॉस्पिटल के नाम भी नहीं जानता, शायद नया खुला होगा। मैंने अपने आपको समझाते हुए कहा।
तभी मैडम की आवाज कानों में पड़ते ही मेरी तन्द्रा मानो भंग हुई "अरे, कोई इलाज-विलाज नहीं होता है वहाँ, अगर कभी दर्द होता है तो पेनकिलर दे देते हैं। भाईसाहब, बड़े साहब की तनख्वाह कितनी होगी? डेढ़, दो-लाख रुपये तो महीने की होगी ही!"
"आप भी, अरे, इतनी तो कट के उनके हाथ में आती है!" एक सहकर्मी तपाक से बोला।
"लो, और सुनो, मैडम भी तो क्लास वन अधिकारी हैं, इनसे कम तो वह भी नहीं कमाती होंगी, फिर साहब ने अपनी माँ को वृद्धाश्रम में क्यों रखा है? इससे अच्छा तो अपना पानी पिलाने वाला है जो अपने माँ बाप की सेवा घर पर ही कर रहा है!"
अच्छा तो यह माजरा है सब समझते हुए मैं कुर्सी के अंदर धँसने लगा।
"क्या मैं इसी ग्रह का प्राणी हूँ?"
पंकज जोशी
लखनऊ।
(पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
३०/०४/२०१७
"कैसी खबर भाई?"
"लो, इसका मतलब आप आस्था गए ही नहीं अभी तक?"
"यह आस्था क्या है?" मन ही मन मैं बुदबुदाया, अगर पूछुँगा तो यह सब कमीने मेरी खिल्ली उड़ाएँगे। अपनी भद पिटवाने से अच्छा है चुप बैठूँ!
"अच्छा वहाँ, हाँ भई, अभी नहीं गया, जाना है,साथ चलेंगें.... क्या कहते हो?" उसने प्रत्युत्तर दिया।
मैं सोच में पड़ गया कि थियेटर में कोई नयी पिक्चर आई है या कहीं कोई सेल लगी है?
तभी बगल में बैठी रीना जी मेरी ओर मुखातिब होते हुए बोली "वहाँ जाकर भी कोई वापस आया है भला कभी?"
मतलब, यह लोग किसी हस्पताल की बात कर रहे हैं! मैं निरामूर्ख शहर में रहते हुए ठीक तरह से हॉस्पिटल के नाम भी नहीं जानता, शायद नया खुला होगा। मैंने अपने आपको समझाते हुए कहा।
तभी मैडम की आवाज कानों में पड़ते ही मेरी तन्द्रा मानो भंग हुई "अरे, कोई इलाज-विलाज नहीं होता है वहाँ, अगर कभी दर्द होता है तो पेनकिलर दे देते हैं। भाईसाहब, बड़े साहब की तनख्वाह कितनी होगी? डेढ़, दो-लाख रुपये तो महीने की होगी ही!"
"आप भी, अरे, इतनी तो कट के उनके हाथ में आती है!" एक सहकर्मी तपाक से बोला।
"लो, और सुनो, मैडम भी तो क्लास वन अधिकारी हैं, इनसे कम तो वह भी नहीं कमाती होंगी, फिर साहब ने अपनी माँ को वृद्धाश्रम में क्यों रखा है? इससे अच्छा तो अपना पानी पिलाने वाला है जो अपने माँ बाप की सेवा घर पर ही कर रहा है!"
अच्छा तो यह माजरा है सब समझते हुए मैं कुर्सी के अंदर धँसने लगा।
"क्या मैं इसी ग्रह का प्राणी हूँ?"
पंकज जोशी
लखनऊ।
(पंकज जोशी) सर्वाधिकार सुरक्षित ।
लखनऊ । उ०प्र०
३०/०४/२०१७
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